Thursday, April 18, 2013

जीत और हार


जीतो तो ऐसे-
कि जिसमें,
पसीना बहा हो तुम्हारा,
कि तुमने जो देखा था कभी,
वो सपना सच हुआ हो तुम्हारा,
कि जिसमें दंभ न हो तनिक भी,
कि किसी का नुक्सान न छुपा हो,
कि किसी से कुछ छीना न हो तुमने,
कि किसी की आह न दबी हो जिसमें,
बस मेहनत परिलक्षित हुई हो तुम्हारी,
लोग स्वतः ही कह उठें कि-वाह क्या जीत है,
सच्चाई से जीतना ही तो जीत की सच्ची रीत है,


 और-
गर हारो तो ऐसे-
कि जीतने वाले को-
कांटे की टक्कर दी हो तुमने,
जीतने वाले को प्रतिद्वंदिता का,
इक एहसास और ख़ुशी का आभास हो,
और जिसमें कतई हारने की ग्लानि न हो,
कि जिसमें टूट कर न तुम बिखरो अंदर ही अंदर,
दुबारा जूझने की इक हिम्मत सतत बानी रहे मन में,
सदा सम्मान रखो अपने आप का और जीतने वाले का भी,
लोग स्वतः ही चहक उठें कि-वाह जीत से बढ़कर तो ये हार है,

यह कालचक्र है-
हार के बाद जीत,
जीत के बाद हार आती ही है,
जिंदगी बार-बार मौके दोहराती है,
जिंदगी क्या है-इक खेल ही तो है मित्रों,
सुख-दुःख के ही दो पहलू का रूप है मित्रों,
बस खेल की भावना से ही खेलना है जी तोड़ ,
धोखे से भी ढीला न पड़े,यह प्रतिद्वंदता का जोड़,
दिन-रात के आने-जाने के जैसा है,जीत-हार का साथ,
दृढ़ हो खेलो,विश्वास से खेलो,बाकी सब ऊपर वाले के हाथ।
                                         
                                                           ( जयश्री वर्मा )
                                     


 

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