Saturday, April 27, 2013

तुमसे

तुम आये तो जैसे कि-
ठहरे पानी में,कंकड़ फेंका हो किसी ने,
कि जैसे मन बगिया,खिल उठी हो महकी सी,
कि जैसे फूल खिले हों,रंग-बिरंगे भावों भरे,
कि जैसे खुशबूएं,समां गईं हों साँसों में,
कि जैसे चटकी हो,कली कोई प्रेम भरी अल्हड़,
कि जैसे रौशनियों का इन्द्रधनुष,चमका हो आँखों में,
कि जैसे जेठ के बाद,पहली बरसात हो भीनी-भीनी,
कि जैसे सपनों के पंख लिए,तितलियाँ उड़ती हों यहाँ-वहां,
कि जैसे बहकी-बहकी नदियाँ,छलकी फिर रहीं हों कहीं,
कि जैसे साएं-साएं हवा,कोई सरगम गा रही हो कानों में,
मैं जीवन सा-ठहरा,बहका,महकों की तरंगों में खोया,
फिर क्या हुआ अचानक ? क्यों हुआ ऐसा ?
तुम्हारे जाने से-सिर्फ़ केवल तुम्हारे जाने से,
सब कुछ वही है,लेकिन कुछ नहीं है भाता,
न फूल,न भंवरे,न इन्द्रधनुष,न रौशनी,न गीत,न संगीत,
कि जैसे सब समेट ले गए हो,तुम अपने साथ,
कि जैसे तूफ़ान के बाद का वीराना,पसरा हो हर कहीं,
कि जैसे उजड़ा-उजड़ा,सूना-सूना सा हो गया हो तन-मन,
कि जैसे बेजान मैं और शमशान हो गया हो मेरा जीवन। 
                                                          
                                                                                                    ( जयश्री वर्मा )



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