Friday, April 5, 2013

गौरैया री


गौरैया तुम हर फागुन में,न जाने कहाँ से आती हो ?
मेरे घर की भीत-सुराख़ में,अपना नीड़ बनाती हो,
तिनका-तिनका यहाँ-वहाँ से,ढूँढ- ढूँढकर लाती हो,
भविष्य के सपनों में खोई,घरौंदा खूब सजाती हो।

मैंने देखा,तुमने देखा,इक रिश्ता गढ़कर प्यार जताती,
पानी-पीती,दाना-चुगती,फुदक-फुदककर नाच दिखाती,
डरती नहीं हो मुझसे अब तुम,पास मेरे घूमा करती हो,
चीं-चीं करती अपनी भाषा में,तुम बातें बहुत बनाती हो।

पत्तों के झुरमुट से तुम झांक-झांक कर, छुप-छुपकर,
लुकाछिपी मित्रों संग मिलकर,तुम खूब मजे लगाती हो,
नन्हे-नन्हे अंडे सेकर,अपने भावी नन्हों के इंतज़ार में,
धैर्य परीक्षा दिखा-दिखाकर,जिम्मेदारी खूब निभाती हो।

आज तुम्हारे घर में जन्मे,बच्चे नन्हे-नन्हे,प्यारे से,
तुम बस उनकी सेवा में लगकर मन ही मन हर्षाती हो,
दाना-दुनका और कीट-पतंगे चोंच में भर-भर लाती हो,
बच्चों के लालन-पालन में तुम,भोर हुए जुट जाती हो।

सेवा करती नौनिहालों की,जब तक समर्थ न बन जाएँ,
फिर खूब जतन से,खूब लगन से,उड़ना उन्हें सिखाती हो,
बारी-बारी सब उड़ जाते,तब बैठी शान्त ताका करती हो,
मैं भी माँ हूँ,समझ रही हूँ,गौरैया री!तेरे इस सूनेपन को।

क्या-कुछ कहना चाहती हो मुझसे,समझ नहीं मैं पाती हूँ,
फिर कुछ सोच-समझ कर तुम,अपने पथ उड़ जाती हो,
इक रिश्ता तुझसे बना अबूझा,ओ पंछी!तेरे-मेरे प्यार से,
अगले बरस तुम फिर से आ जाना,रहूंगी मैं इंतज़ार में।

                                                                                        ( जयश्री वर्मा )





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