Monday, March 4, 2013

पुनर्जन्म

पत्ता-कांपा,टूटा,बिछड़ा,गिरा,उड़ चला कहीं डाल से दूर,
बोला-नियति में साथ अपना इतना ही,मैं हूँ अब मजबूर,
जा रहा हूँ वहां,जहाँ मुझे खुद भी नहीं मंजिल का पता,
न दिशा,न दशा,कुछ भी तो नहीं,तुमको सकता मैं बता।













क्या पता किसी पांव तले आकर,चरमरा के बिखर जाऊं,
क्या पता किसी जलधार के साथ,कहीं बहता चला जाऊं,
क्या पता किसी वनचर की क्षुधा,मिटाने के काम मैं आऊं,
क्या पता किसी पंछी के,नीड़ के लिए,सहेज लिया जाऊं।

क्या पता कि मिट्टी में मिल के मैं अपना वजूद ही मिटा दूँ,
क्या पता कि किसी नन्हे से जीव को मैं बहने से बचा लूँ,
क्या पता कि किसी दावानल में झुलस के भस्म हो जाऊं,
क्या पता किसी कवि के पन्ने की जिन्दा नज़्म बन जाऊँ।

नहीं-नहीं,मेरी याद में न उदास होना,न आंसू बहाना तुम,
मैं पुनर्जन्म को मानता हूँ,बस सच्चे दिल से बुलाना तुम,
कि मेरे इस तरह से जाने को मेरा इक सफ़र ही समझना, 
मेरी याद में,न बेकल होना,न रोना,न मन करना अनमना।

चारों तरफ जब सावन की रिमझिम फुहारें नेह बरसाएंगी,
और धरती पुराना त्याग अपने कलेवर को रंगीन बनाएगी,
कि यकीन मानो जब बहार आएगी फ़िज़ा में फैलेगा सुरूर,
तुम्हारी ही डाल पे कोपल बन के मैं खिलखिलाऊंगा जरूर।
     
                                                     ( जयश्री वर्मा )

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